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नारी हूँ मैं

व्यक्तित्व को मेरी एक शब्द ने दबोचा है, औरत कहते हैं जिसे, उस मूक मूरत की कहानी हूँ मैं, समाज के नजरिये में पिस्ती रही है वर्षों से, उन बेड़ियों के चोट की निशानी हूँ मैं । शर्म और लाज हैं तेहजीबों से अलग, ये ऐसे व्यवहार हैं, जो हमारे कपड़ो में दीखते हैं, जिनकी कपड़ों की लंबाई ज़्यादा, उनमे शर्म की गहराई ज्यादा । इन पैरों को सिखाना देहलीज की सीमा, अपनी चादर को कभी तुम फांद मत जाना, करना वही जो ये समाज चाहे, खुद की मर्जिओं को तुम कभी मत आजमाना, पिता की पगड़ी जो लेके चले अपनी हाथों में, स्वरचित चित्र की,ऐसी स्वविनाशी हूँ मैं । निज्जता को मेरी समझ के अपना, खुद के पौरुष को सर्वोपरि, सिखातें हैं कलमे उसे जीने की, जिसने दी उनको ये जिंदगी, बोने का हक़ है,काटने की मनाही, स्वतंत्रता के युग की, ऐसी अभागी हूँ मैं। इतिहास के पन्ने है शौर्य से भरे, मंदिरों में होते हो हाथ जोड़ के खड़े, मांगते हो निर्भय जीवन की कामना वहीं, और मरती है निर्भया वो कौम में पड़ी। अगर कहूँ इसे ये नियति है, तो क्या यह तुम्हारी नियत न थी, अगर कहूँ की मैं एक नारी हूँ, तो क्या मैं तुम्हारी जिम्मेदारी ...

तुम प्यार हो

आजाद थें हम अनजानी भीड़ में... एक पहचाना चेहरा,इक पहचानी महक। रात की अनचाही भीड़,और तुम। मैंने गुमनाम शब्दों में कहा तुमसे कि तुम 'प्यार' हो। और फिर मेरे दाहिने मैंने तुम्हे देखा, सच तुम इस अल्फ़ाज़ से ज्यादा पवित्र और खूबसूरत मालूम पड़ी। और मेरी नजर पड़ी दिवार पे छपे उस इस्तिहार पर। "यहाँ फ़ोटो चिपकाना मना है।" मन कसोट के रह गया। मुझे वहीं चिपकानी थी एक तस्वीर, तस्वीर जिसमे लिखा हो 'इस शहर की चाँदनी तुमसे है, इस चाँदनी को मैं यहाँ नहीं चाहता,' और इक बार फिर मैंने मेरे गुमनाम शब्दों में तुमसे कहा, "चलो न मेरे साथ फिर कभी वापिस न आने के लिए।" फिर हम उस गली से निकल के सड़क पे पहुँचे, तुमने अपने सामने की तरफ ऊँगली दिखाते बोला, "देखो मेरी गली।" मैंने बोला तुमसे की "मैं नहीं जाने देना चाहता तुम्हे ख्वाब के आने तक, तुम वास्तव में हो सामने और मुझे ये वास्तव चाहिए ख्वाब के आने तक।" अफ़सोस मेरे ये शब्द भी गुमनाम निकलें। मेरी नज़र पड़ी उस गली पे टँगे पहचान नामे पे, लिखा था, "केंद्रीय जल निगम" मैं तुम्हे वहाँ रुकने को ...

स्याह रंग

इन स्याह रंगों की औंध में मेरे कुछ जुगनू टहल रहे थे क्या तुमसे मिले या तुमने देखा उन्हें । डरे-सहमे थोड़े परेशान से दिख रहे होंगे किसी अजनबी ने उन्हें अपनी मुठ्ठी में कैद करने की कोशिश की थी शायद। बहोत ही मासूम है मेरे वो जमीन के सितारे,जब भी मैं उनके बीच जाता हूँ घेर लेते है मुझे मानो मेरे व्यक्तित्व को उस चाँद सा रौशन बनाना चाहते हों जिसके हर तरफ कई चमकीले सितारे हैं। वो दोस्त हैं मेरे क्योंकि खुद को मैंने उनके अनुरूप सजाने की उन्हें इज़ाज़त दे रखी है। उनमे से कुछ तो बहोत ही शरारती थें,,, मेरे केशों में फंस कर एक ताज की आकृति में ढल जाते और उस  पूनम की रात का मुझे राजा घोषित कर देते। मैं अपनी दोनों हथेलियों को आगे की ओर फैलाते हुए, उन्हें उनपर पर बिठा लिया करता और फिर उन्ही हलथेलिओं को जोड़ते हुए एक गुम्बद बना लेता, जिसमे अंदर झाँक कर मै उनकी शरारतों को बड़े गौर से देखता फिर उन्हें उस अँधेरे आकाश में चाँद की तरफ खूब जोरों से उछाल देता की शायद ये उस चाँद तक पहुँच जाते पर वो तो मेरे दोस्त थें फिर ठीक उसी तरह आकर मुझे यूँही घेर लेते और मै हँसता सा उनके बीच नाचने लगता। अब वो ...

एक टुकड़ा आसमां

क्या महसूस किया था, तुमने अपनी भावनाओं की कसक जब मेरे हाथ की उँगलियाँ तुम्हारी होंठो की लकीरों को छूती हुई तुम्हारी गर्दन से नीचे उतर रही थी ? कैसे भींच लिया था तुमने अपनी आँखों की दोनों पलकें एक साथ मानो आसमां ने परिंदे को,चाँद को छूने की इजाजत दे दी हो। तुम्हारी पलकें जो बंद ही रहना चाहती थी और तुम्हारे लरज़ते होंठ जो कुछ कहना चाहते थें शायद की वह केवल जुगनू की चमक नहीं दीपक का स्थायी प्रकाश चाहती हैं। उस रात ख़ामोशी रौशन थी और मेरा सुकून सोया हुआ था। साँसों के रफ़्तार के बीच मेरे बेसब्र होंठ तुम्हारी लबों पर ठहर कर उन्हें अनुभव करने को बेआबरू हुए जा रहे थें जब तुमने उन्ही बंद पलकों में मेरी दोनों हथेलियों की सभी उंगलियों को अपनी उंगलियों में फंसा मुझे अपनी तरफ खींचते हुए बोला था। "सुनो, मै अभी सिर्फ तुम्हारी हूँ पहले से कुछ ज्यादा।" फिर हम प्यार के उस असीम शांत सागर में कूद पड़े थें। वो हंसी रात धीरे-धीरे सुलगती जा रही थी, और कुछ ही पल में मेरे दरीचे पर सुबह उतर आई थी। वो एहसास खत्म होने को था, पर उस रात मैंने अपने पास, फूल सा तोड़कर एक टुकड़ा आसमां का रख लिया था...

बस यूँ हीं

क्या जो कुछ था, बस यूँ ही था? वो चाँद का अपना रात जो था, जो रात का था वो चाँद का भी, तो अमावस्या की रात का क्या, बिन चाँद उग आना यूँ ही था ? एक ख्वाब का था जो आँख में थी, रात पे हिं एक आस टिकी, तब लेकर अंगड़ाई बाँहों में, क्या सुबह का आना यूँ ही था ? तुम साथ में थी और हाथ में भी, कश्ती भी थी इस प्यार की हीं, फिर कश्ती के उस सागर में क्या, तूफान का आना यूँ ही था ? तुम दूर खड़ी एक मंजिल थी, तुम तक चल आना वाजिब था, फिर रूठकर मेरी साँसों का क्या, तुम में मिल जाना यूँ ही था ?

कुछ नए आयाम

ये अँधेरे अब डराते नहीं, उन साख के पत्तों की सरसराहट, झींगुर की आवाजें, रंगों की काली सखी, और उनके साथ आकाश में उड़ता वो निशाचर। अपनी परछाईयों में , किसी दूरस्थ आभा के होने की शंका। सपनो की ऊंचाइयों से वो लंबी छलांग। इन स्याह रंगों में खुद के खो जाने की कल्पना, और खुद ये रातें, अब डराते नहीं। वक्त की लंबी करवट ने, जिंदगी की फेहरिस्त में, कुछ नए आयाम जोड़े है। धुप की रौशनी में अचानक, कुछ पल के लिए सब धुंधला जाना। ठण्डी हवाओं के सिहरन की जब्त। उन बादलों में कोई पहचाना सा आकार। आँखों के किसी कोने में, मोती सा चमकता पानी। ढलते शाम की बाहों में सिमटता मेरा सवेरा, भरमाई रात को खुद में जगते देखना, अब मुझे डराते हैं।

काश की बात

इक काश की बात थी, जो काश में ही रह गई। काश की तुम होती। काश की तुम मेरी होती। काश की मै तुम सा होता। काश की तुम मुझ सी होती। काश की तुम्हारी जुल्फें लहराती। काश की वो घटायें बन पातीं। काश की प्यार की बुँदे बरसती। काश की हम उनमें भींग पातें। काश की तुम मेरी बाँहों में सिमटती। काश की मैं तुम्हारी यौवन में डूबता। काश की मेरी सुबह की शाम तुम्हारे होंठो पर ढलती। काश की मेरी रात की सुबह तुम्हारी पलकों पर उगती। काश की तुम्हारी खुशबू मेरी साँसों में महकती। काश की मेरी साँसे तुम्हारी धड़कनो में धड़कती। काश कि मेरी खामोश जुबां के पीछे छिपी बात, तुम सुन पाती। काश की तुम्हारी बोलती बातों के पीछे छिपी ख़ामोशी मैं समझ पाता। काश की तुम्हारी चौराहे वाली सड़क पर मैं अपनी जिंदगी ढूंढने निकलता। काश की तुम मिल जाती। काश की हम मिल जातें। इक अफसाना गुजर गया, वो यादें ढह गयी, जो काश की बात थी, वो काश में ही रह गई।