नारी हूँ मैं
व्यक्तित्व को मेरी एक शब्द ने दबोचा है,
औरत कहते हैं जिसे,
उस मूक मूरत की कहानी हूँ मैं,
समाज के नजरिये में पिस्ती रही है वर्षों से,
उन बेड़ियों के चोट की निशानी हूँ मैं ।
शर्म और लाज हैं तेहजीबों से अलग,
ये ऐसे व्यवहार हैं, जो हमारे कपड़ो में दीखते हैं,
जिनकी कपड़ों की लंबाई ज़्यादा,
उनमे शर्म की गहराई ज्यादा ।
इन पैरों को सिखाना देहलीज की सीमा,
अपनी चादर को कभी तुम फांद मत जाना,
करना वही जो ये समाज चाहे,
खुद की मर्जिओं को तुम कभी मत आजमाना,
पिता की पगड़ी जो लेके चले अपनी हाथों में,
स्वरचित चित्र की,ऐसी स्वविनाशी हूँ मैं ।
निज्जता को मेरी समझ के अपना,
खुद के पौरुष को सर्वोपरि,
सिखातें हैं कलमे उसे जीने की,
जिसने दी उनको ये जिंदगी,
बोने का हक़ है,काटने की मनाही,
स्वतंत्रता के युग की,
ऐसी अभागी हूँ मैं।
इतिहास के पन्ने है शौर्य से भरे,
मंदिरों में होते हो हाथ जोड़ के खड़े,
मांगते हो निर्भय जीवन की कामना वहीं,
और मरती है निर्भया वो कौम में पड़ी।
अगर कहूँ इसे ये नियति है,
तो क्या यह तुम्हारी नियत न थी,
अगर कहूँ की मैं एक नारी हूँ,
तो क्या मैं तुम्हारी जिम्मेदारी न थी,
अगर कहूँ की मैं समानता की भूखी न हूँ,
पर सम्मान देने की भी तुम्हारी हामी न थी।
पुरुषवादी मानसिकता और कुंठित स्वरों के बीच
चिल्लाती रही जो वर्षों से,
पहचान उस मूक कंठ और दबे शोर की लौट चुकी,
अब सर्वोच्च,अमिट,अविनाशी हूँ मैं ।
नारी हूँ मैं।
औरत कहते हैं जिसे,
उस मूक मूरत की कहानी हूँ मैं,
समाज के नजरिये में पिस्ती रही है वर्षों से,
उन बेड़ियों के चोट की निशानी हूँ मैं ।
शर्म और लाज हैं तेहजीबों से अलग,
ये ऐसे व्यवहार हैं, जो हमारे कपड़ो में दीखते हैं,
जिनकी कपड़ों की लंबाई ज़्यादा,
उनमे शर्म की गहराई ज्यादा ।
इन पैरों को सिखाना देहलीज की सीमा,
अपनी चादर को कभी तुम फांद मत जाना,
करना वही जो ये समाज चाहे,
खुद की मर्जिओं को तुम कभी मत आजमाना,
पिता की पगड़ी जो लेके चले अपनी हाथों में,
स्वरचित चित्र की,ऐसी स्वविनाशी हूँ मैं ।
निज्जता को मेरी समझ के अपना,
खुद के पौरुष को सर्वोपरि,
सिखातें हैं कलमे उसे जीने की,
जिसने दी उनको ये जिंदगी,
बोने का हक़ है,काटने की मनाही,
स्वतंत्रता के युग की,
ऐसी अभागी हूँ मैं।
इतिहास के पन्ने है शौर्य से भरे,
मंदिरों में होते हो हाथ जोड़ के खड़े,
मांगते हो निर्भय जीवन की कामना वहीं,
और मरती है निर्भया वो कौम में पड़ी।
अगर कहूँ इसे ये नियति है,
तो क्या यह तुम्हारी नियत न थी,
अगर कहूँ की मैं एक नारी हूँ,
तो क्या मैं तुम्हारी जिम्मेदारी न थी,
अगर कहूँ की मैं समानता की भूखी न हूँ,
पर सम्मान देने की भी तुम्हारी हामी न थी।
पुरुषवादी मानसिकता और कुंठित स्वरों के बीच
चिल्लाती रही जो वर्षों से,
पहचान उस मूक कंठ और दबे शोर की लौट चुकी,
अब सर्वोच्च,अमिट,अविनाशी हूँ मैं ।
नारी हूँ मैं।
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