साजिश

बेखबर ठोकरों से,झूम कर बढ़ रहे थे कदम,
अन्जानी सी साजिश थी उन हवाओं की l

कर दिया बैचेन इसकदर उनकी शोर ने,
इस दिल-ए-महफ़िल को,
दो कदम पे थी मंजिल पर हम,
उठ के जा न सके l

अजनबी भीड़ से निकल तो आए थे,
वीरानियाँ खैर-ए-मगदम में खड़ी हैं,
ये जान न सके l

सन्नाटो ने आगाह करना तो चाहा था मुझे,
पर छुपे थे जो राज उनकी खामोशिओं में,
उनको हम पहचान ना सके l

कोसते रहे ताउम्र जिन बेरुख हवाओं को,
वो तो पाक निकले,
रंजिश तो थी उस मंजिल की जो खुश थी कि,
हम उस तक आ ना सके l

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