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Showing posts from January, 2018

चंद बातें

तुम तो खुश हो अपनी दुनिया में, मेरे जज्बात महरूम होते रहे, पर तुम्हे क्या, तुम्हे तो मेरे सिद्दत-ऐ-प्यार का एहसास तक नहीं l पता है, जब मै तुम्हे किसी और के साथ देखता हूँ तो, बिखरने लगता हूँ, टूटने लगता हूँ l पर तुम, तुम समझती क्यों नहीं मेरी ख़ामोशी को, बोलो, क्यों नहीं समझती ? न मेरे प्यार में जबरदस्ती थी, न हक़, फिर भी कुछ था, तो वो थे मेरे जज्बात, प्यार से पुचकार के दफा कर दिया होता इनको, यूँ ठोकर मारने की जरुरत तो न थी l महसूस तो किया होता, इन आंसुओ की पाकीज़ा मासूमियत को, इसी की तो जुस्तजू थी मुझे बरसों से l तुम्हारा साथ छोड़ने की तो सोच भी नहीं सकता, कहा तो होता, ये जान छोड़ देता, तुम्हारे कदमों पर l

तुम जा चुकी हो

मुझे अब वो हंसी नहीं दिखती, जो मुझे देख कर तुम्हारे चेहरे पर आया करती थी l मुझे तुम्हारी आँखों में, वो पहले वाला "मै" नहीं दीखता l मुझे नहीं पता मेरे साथ ये क्या हो रहा है, मै तुम्हे हमेशा के लिए खोता जा रहा हूँ l अब टूटे हुए दिल के टुकड़ों को संभाल कर रख पाना, मुश्किल होता जा रहा है l शायद मुझे हकीकत का सामना करना ही होगा की, मैंने तुम्हे खो दिया और मैं कुछ न कर सका l शायद ये समय अब आगे बढ़ जाने का है, ये समय उन सभी यादों को भूलने का है, जो हमने आपस में बांटे थे, मुझे तुम्हारे बिन दिन गुजारने सीखने होंगे l मुझे पता है आने वाला कल अकेलेपन से भरा है, पर मुझे उसे जीना ही होगा, पता नहीं मैं तुम्हारे प्यार के बिन कैसे रह पाउँगा, तुम्हारे बिना जिंदगी भी क्या कोई जिंदगी है l मेरे जेहन में हजारों सवाल है, मैं उनके जवाब क्यों नहीं खोज पा रहा पता नहीं, पर मुझे ये पता है, तुम जा चुकी हो , मेरी उंगलिओ से अपना हाथ छुड़ाकर, मेरी साँसों को अपने साथ लेकर, मेरी धड़कनों से बहुत दूर l

साजिश

बेखबर ठोकरों से,झूम कर बढ़ रहे थे कदम, अन्जानी सी साजिश थी उन हवाओं की l कर दिया बैचेन इसकदर उनकी शोर ने, इस दिल-ए-महफ़िल को, दो कदम पे थी मंजिल पर हम, उठ के जा न सके l अजनबी भीड़ से निकल तो आए थे, वीरानियाँ खैर-ए-मगदम में खड़ी हैं, ये जान न सके l सन्नाटो ने आगाह करना तो चाहा था मुझे, पर छुपे थे जो राज उनकी खामोशिओं में, उनको हम पहचान ना सके l कोसते रहे ताउम्र जिन बेरुख हवाओं को, वो तो पाक निकले, रंजिश तो थी उस मंजिल की जो खुश थी कि, हम उस तक आ ना सके l

मंजर (गजल)

शहर की भीड़ में,एक गुमनाम सा मंजर गुजरा है, जीते हुए जंग का हारा सिकंदर गुजरा है l मुठ्ठी में थे जिसके,तख्तों ताज जहाँ के, गवाँ के अपना सब कुछ,वो कलंदर गुजरा है l देखा था जिसने,एक अरसे से इंसा को, हो के फिदा उस हूर की मासूमियत पे, जरा देखो तो, अपने महबूब की गली से,वो शमा का परवाना गुजरा है l डरता था कूप की गहराई से जिसका दिल, वो मेहरूम आज समंदर से होके गुजरा है l शहर की भीड़ में,एक गुमनाम सा मंजर गुजरा है ll