आबशार

ठहरे थे कदम जहां पर मेरे,
मंजिल वो नहीं थी इस कारवाँ की,
था जरूर उस पल में कुछ खास ऐसा,
कदम जो ठहरे तो,पाक निगाहे भी गुस्ताखी कर बैठी l

दुवाओं की फेहरिस्त थी पलकें झुकी हुई,
मचल रहे थे अलफ़ाज़ लबों से बाहर आने को,
था अक्स खुदा का,उस सुरत-ए-पाक में,
यु ही ये साँसे ठहरती नहीं,
किसी चेहरे के नूर पे l

नवाजिस-ए-रिवायत के आबशार में जो डूबे,
तो साहिल की तलाश ना रही,
अब तो मोतजा की आश में,
सब कुछ लुटाये बैठे है l

पासबान, ओ खुदा करम कर इस नाचीज़ पर,
आसना से नवाज मुझे उस आफरिन-ए-हुर के l

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