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Showing posts from January, 2020

नारी हूँ मैं

व्यक्तित्व को मेरी एक शब्द ने दबोचा है, औरत कहते हैं जिसे, उस मूक मूरत की कहानी हूँ मैं, समाज के नजरिये में पिस्ती रही है वर्षों से, उन बेड़ियों के चोट की निशानी हूँ मैं । शर्म और लाज हैं तेहजीबों से अलग, ये ऐसे व्यवहार हैं, जो हमारे कपड़ो में दीखते हैं, जिनकी कपड़ों की लंबाई ज़्यादा, उनमे शर्म की गहराई ज्यादा । इन पैरों को सिखाना देहलीज की सीमा, अपनी चादर को कभी तुम फांद मत जाना, करना वही जो ये समाज चाहे, खुद की मर्जिओं को तुम कभी मत आजमाना, पिता की पगड़ी जो लेके चले अपनी हाथों में, स्वरचित चित्र की,ऐसी स्वविनाशी हूँ मैं । निज्जता को मेरी समझ के अपना, खुद के पौरुष को सर्वोपरि, सिखातें हैं कलमे उसे जीने की, जिसने दी उनको ये जिंदगी, बोने का हक़ है,काटने की मनाही, स्वतंत्रता के युग की, ऐसी अभागी हूँ मैं। इतिहास के पन्ने है शौर्य से भरे, मंदिरों में होते हो हाथ जोड़ के खड़े, मांगते हो निर्भय जीवन की कामना वहीं, और मरती है निर्भया वो कौम में पड़ी। अगर कहूँ इसे ये नियति है, तो क्या यह तुम्हारी नियत न थी, अगर कहूँ की मैं एक नारी हूँ, तो क्या मैं तुम्हारी जिम्मेदारी ...

तुम प्यार हो

आजाद थें हम अनजानी भीड़ में... एक पहचाना चेहरा,इक पहचानी महक। रात की अनचाही भीड़,और तुम। मैंने गुमनाम शब्दों में कहा तुमसे कि तुम 'प्यार' हो। और फिर मेरे दाहिने मैंने तुम्हे देखा, सच तुम इस अल्फ़ाज़ से ज्यादा पवित्र और खूबसूरत मालूम पड़ी। और मेरी नजर पड़ी दिवार पे छपे उस इस्तिहार पर। "यहाँ फ़ोटो चिपकाना मना है।" मन कसोट के रह गया। मुझे वहीं चिपकानी थी एक तस्वीर, तस्वीर जिसमे लिखा हो 'इस शहर की चाँदनी तुमसे है, इस चाँदनी को मैं यहाँ नहीं चाहता,' और इक बार फिर मैंने मेरे गुमनाम शब्दों में तुमसे कहा, "चलो न मेरे साथ फिर कभी वापिस न आने के लिए।" फिर हम उस गली से निकल के सड़क पे पहुँचे, तुमने अपने सामने की तरफ ऊँगली दिखाते बोला, "देखो मेरी गली।" मैंने बोला तुमसे की "मैं नहीं जाने देना चाहता तुम्हे ख्वाब के आने तक, तुम वास्तव में हो सामने और मुझे ये वास्तव चाहिए ख्वाब के आने तक।" अफ़सोस मेरे ये शब्द भी गुमनाम निकलें। मेरी नज़र पड़ी उस गली पे टँगे पहचान नामे पे, लिखा था, "केंद्रीय जल निगम" मैं तुम्हे वहाँ रुकने को ...